नीति आयोग के सर्वे के अनुसार देश में साठ करोड़ की आबादी भीषण पेयजल संकट का सामना कर रही है।
अपर्याप्त और प्रदूषित पानी के इस्तेमाल से देश में हर साल दो लाख लोगों की मौत हो जाती है। यूनिसेफ के मुहैया कराए गए विवरण के अनुसार भारत में दिल्ली और मुंबई जैसे महानगर जिस तरह पेयजल संकट का सामना कर रहे हैं, उससे लगता है कि 2030 तक भारत के 21 शहरों का पानी पूरी तरह से समाप्त हो जाएगा।
आज उष्णता और सूखा जैसे संकट के बीच भारत सहित दुनिया के तमाम देश अपनी परंपरा और सरोकारों में पानी सहेजने से जुड़ी चिंताओं पर नये सिरे से बात कर रहे हैं। इस चिंता और इससे जुड़े विमर्श का सकारात्मक हासिल यह है कि अब सरकारों के लिए पानी मसला नहीं, बल्कि मिशन का नाम है।
। इस सफर के एक छोर पर सिंगापुर जैसा छोटा मुल्क है, तो दूसरे छोर पर भारत जैसी विशाल आबादी और भूगोल वाला देश।
बात सिंगापुर की करें तो वि में जल प्रबंधन के जितने भी मॉडल हैं, उनमें सिंगापुर का मॉडल अव्वल माना जाता है। आने वाले चार दशकों के लिए आज सिंगापुर के पास पानी के प्रबंधन को लेकर ऐसा ब्ल्यूप्रिंट है, जिसमें जल संरक्षण से जल शोधन तक पानी की किफायत और उसके बचाव को लेकर तमाम उपाय शामिल हैं।
सिंगापुर की खास बात यह भी है कि उसका जल प्रबंधन शहरी क्षेत्रों के लिए खास तौर पर मुफीद है। ग्रामीण आबादी वाले इलाकों में सिंगापुर का मॉडल शायद ही ज्यादा कारगर हो। सिंगापुर से भारत सीख तो सकता है, पर इस देश की आबादी और भूगोल ज्यादा मिश्रित और व्यापक है। फिर हमारे यहां पानी के अभाव से ज्यादा बड़ा सवाल उसके संग्रहण और वितरण का है। लिहाजा, पानी को लेकर भारतीय दरकार और सरोकार सिंगापुर से खासे भिन्न हैं।
अलबत्ता, इसे भारतीय राजनीति में प्रकट हुए सकारात्मक बदलाव के साथ सरकारी स्तर पर आई नई योजनागत समझ भी कह सकते हैं कि अब स्वच्छता और घर-घर नल से जल की पहुंच जैसा मुद्दा साल के एक या दो दिनों नारों-पोस्टरों में जाहिर होने वाली कामना और सद्भावना से आगे सरकार की घोषित प्राथमिकता है। 2014 में लाल किले से तिरंगा फहराते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने महात्मा गांधी का स्मरण किया और स्वच्छता के मुद्दे को सरकार और समाज, दोनों के एजेंडे में शामिल कराने में बड़ी कामयाबी हासिल की।
यह देश में राजनीति के उस बदले आधार और सूचकांक का भी संकेत था, जिसमें आगे साफ-साफ तय हुआ कि सुशासन का मुद्दा महज सरकारी दफ्तरों में फाइलों के तेजी से आगे बढ़ने और योजनागत खचरे में शून्य की गिनती बढ़ते जाने का नाम भर नहीं है। स्वच्छता के बाद जिस तरह पानी के मुद्दे को 2019 में भारत सरकार जल जीवन मिशन के तौर पर लेकर सामने आई, वह दिखाता है विकास का रंग हरा या धूसर के साथ साथ नीला भी होना चाहिए।
इस मिशन के तहत 15 अगस्त, 2019 से 19 अप्रैल, 2022 तक अगर देश के ग्रामीण इलाकों में दस करोड़ से ज्यादा पानी के नये कनेक्शन दिए गए हैं, राज्य सरकारों के बीच 2024 से पहले सफलता के शत-फीसद लक्ष्य को हासिल करने को लेकर स्वस्थ होड़ छिड़ी है, तो यह देश में राजनीति और शासन का भी वह बदला चेहरा है, जिसे देखने के लिए नये और धुले चश्मे की दरकार है। कॉरपोरेट और सरकारी, दोनों की भागीदारी समाज में प्रभावशाली बदलाव ला सकती है। इसमें सामुदायिक भागीदारी को शामिल कर दिया जाएगा तो परिणाम और भी कारगर होंगे।
कोका-कोला इंडिया फाउंडेशन और एसएम सहगल फाउंडेशन ने आंध्र प्रदेश के अनंतपुर और कर्नाटक के कोलार जिले में जलधारा परियोजना शुरू की थीं, जो अति-पिछड़े, शोषित, सूखे से प्रभावित, असंतुलित वष्रा और आर्थिक रूप से पिछड़े क्षेत्रों पर केंद्रित हैं। दरअसल, अनंतपुर क्षेत्र असंतुलित वष्रा पैटर्न के कारण लगातार सूखे की चपेट में रहता है, और भूजल का गिरता स्तर किसानों के लिए समस्या बन गया था, जिसके कारण क्षेत्र में कृषि उत्पादकता कम थी। जलधारा परियोजना और लोगों के प्रयासों से अनंतपुर में 5 चेक डैम का निर्माण किया गया। फलत: वहां 77 प्रतिशत किसानों ने अपनी फसल की उपज में वृद्धि देखी।
कोलार में जलधारा परियोजना के तहत पारंपरिक पानी की टंकियों की गाद निकाली गई। डिसिल्टेशन पानी से रेत और अन्य कणों को हटाने की प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया ने भूजल के रिसाव में भी वृद्धि की जिससे बोरवेल के जल स्तर में 90 प्रतिशत की वृद्धि हुई। यहां 56 प्रतिशत किसानों ने स्वीकारा कि फसल उत्पादन में वृद्धि हुई है। परियोजना के तहत चेक डैम निर्माण की जिम्मेदारी लेने के लिए समुदायिक भागीगारी बढ़ाने पर विशेष जोर दिया गया क्योंकि पानी की समस्या हल करने के लिए कॉरपोरेट और सरकारी क्षेत्र की साझा जिम्मेदारी के साथ ही सामुदायिक भागीदारी भी जरूरी है।
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